Friday 7 May 2010

जानवरों की गिनती होगी, जाति की नहीं

राजकिशोर

पिछली बार की तरह इस बार भी जनगणना कर्मचारी जब मेरे बारे में ढेर सारी जानकारी लेने आएगा, तो वह सब कुछ पूछेगा, पर मेरी जाति जानना नहीं चाहेगा। मैं उससे आग्रह करूंगा कि कहीं पर मेरी जाति तो लिख लीजिए, तब वह सिर हिला देगा। इसरार करने पर वह कहेगा, मेरे रजिस्टर में ऐसा कोई कॉलम ही नहीं है, जहां मैं आपकी जाति लिख सकूं। बहुत थोड़े-से लोग जानते हैं कि मैं आ॓बीसी हूं। मुझे आ॓बीसी होने का न तो दुख है, न गौरव। आ॓बीसी होने के कारण मुझे न तो कभी कोई फायदा मिला, न नुकसान हुआ। हो सकता है, नुकसान हुआ हो। क्योंकि ब्राह्मण या ठाकुर होने से लेखन और पत्रकारिता में कुछ फायदा होता है, यह मैं देख चुका हूं।

साप्ताहिक ‘रविवार’ में, जहां मैंने पत्रकारिता सीखी और की, पहला संपादक ठाकुर था और दूसरा संपादक ब्राह्मण। तीसरा संपादक भी ब्राह्मण ही बननेवाला था कि पत्रिका के दिन पूरे हो गये। क्या ओबीसी का होने के कारण मैं ‘रविवार’ का संपादक नहीं हो सका, कहना मुश्किल है। हो सकता है, मुझमें इतनी योग्यता ही न हो कि मुझे संपादक बनाने पर विचार किया जाता। लेकिन योग्यता कहां से आती है?

पहले मैं समझता था कि योग्यता पढ़ने-लिखने से और निरंतर अभ्यास से आती है। मंडल पर बहस के दौरान यह बात सामने आयी कि योग्यता का सबसे बड़ा स्रोत जाति है। आखिर कुछ तो वजह होगी कि ऊंची जातियों के ज्यादातर सदस्य योग्य होते हैं और निम्न जातियों के ज्यादातर सदस्य अयोग्य। अपने कुनबे में मैं सबसे ज्यादा पढ़ा-लिखा था और सफेद कॉलर वाली नौकरी करता था। लेकिन मेरे कुनबे के अन्य सदस्य या तो छोटा-मोटा व्यापार करते थे या छोटी-मोटी नौकरी। इस तरह मेरी स्थिति में अपवाद का भरपूर तत्व था। फिर भी मैं उस क्लब में शामिल नहीं हो सका जो एलीट क्लास के सदस्यों को मिला कर बनता है।

मंडल पर बहस शुरू होने के पहले मैं जाति को बिलकुल महत्व नहीं देता था। राममनोहर लोहिया के असर से जाति तोड़ने के अभियान में मैं अपने को शरीक मानता था। मंडल विवाद के दिनों में मैंने पहली बार भारतीय समाज में जाति का महत्व पहचाना। आज स्थिति यह है कि ज्यादातर मामलों में आप किसी व्यक्ति की जाति जान लीजिए, उसके बाद उसके विचारों का आभास आपको खुद-ब-खुद हो जाएगा। यह दुर्भाग्य की बात है कि आज भी, इक्कीसवीं शताब्दी में, आदमी नहीं, उसकी जाति बोलती है। लेकिन जो है, सो है। अगर हम जनगणना करने निकलते हैं और लोगों की जाति नहीं लिखते, तो इस अज्ञान के आधार पर क्या तो हम भारतीय समाज का समाजशास्त्रीय अध्ययन करेंगे और क्या तो सरकारी नीतियां बनाएंगे।

भारत में आ॓बीसी लोगों की संख्या कितनी है, यह कोई नहीं बता सकता। क्योंकि 1921 के बाद जातिवार जनगणना बंद कर दी गयी। इसमें अंग्रेज शासकों का जरूर कुछ स्वार्थ होगा। वे धर्म के आधार पर भारतीय समाज को बांट चुके थे। अब जाति के आधार पर कुछ नये विभाजन करना उनके शासन के लिए खतरनाक था। उन पर जातिवाद को बढ़ावा देने का आरोप तो लगता ही। लेकिन नेहरू की कांग्रेसी सरकार ने जनगणना की इस अवास्तविक प्रक्रिया को जारी रखना क्यों आवश्यक समझा, यह किसी भी तर्क की कसौटी पर समझ में नहीं आता। मूल बात यही लगती है कि नेहरू को भारतीय समाज में जाति की अहमियत मालूम ही नहीं थी। वे तो राज्यों के भाषावार पुनर्गठन के भी विरोधी थे। लेकिन यथार्थ उनके सिर पर जिन्‍न की तरह सवार हो गया, तो उन्हें इस सचाई को स्वीकार करना पड़ा।

जाति के बारे में नेहरु यही सोचते थे कि यह चंदरोजा मामला है। दस-बीस साल के बाद जाति व्यवस्था खत्म हो जाएगी। वे जातियों के इतिहास को मिट्टी के घर समझते थे। लेकिन वे पत्थर के घर थे। क्या यह यों ही था कि एक बनिया महात्मा ने आजादी की लड़ाई लड़ी और एक पंडित सत्ता के शीर्ष पर जा बैठा। नेहरू का विश्वास जात-पात में नहीं था, पर उनके साथी और शिष्य उन्हें ‘पंडितजी’ कहते थे, तो उनकी पेशानी पर बल नहीं पड़ते थे।

आज 2010 में, जब एक बार फिर जनगणना शुरू हो चुकी है, स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। भारत में लोकतंत्र का चाल-चलन कुछ ऐसा रहा कि उसने लोगों के सोच को ऊपर नहीं उठाया, बल्कि और संकीर्ण कर दिया। कहते हैं, इसके लिए वोट की राजनीति जिम्मेदार है। यह आंशिक तौर पर ही सही है। इससे बड़ा सच यह है कि किसी भी दल ने जाति व्यवस्था पर प्रहार करने की कोशिश ही नहीं की। दावा तो यहां तक किया जा सकता है कि भारत में या तो जाति रहेगी या लोकतंत्र रहेगा। अकबर इलाहाबादी ने बहुत पहले फब्ती कसी थी कि जम्हूरियत इक तर्जे-हुकूमत है कि जिसमें बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते। अब बंदों की भी नहीं, बल्कि उनकी जाति के मेंबरों की गिनती होती है। इसलिए हिंदुस्तान की हकीकत जाननी है, तो सिर्फ धर्म, भाषा, शिक्षा, आर्थिक स्थिति आदि जानने से काम नहीं चलेगा। यह भी देखना होगा कि किस जाति के सदस्य कितने हैं और उनकी हालत क्या है।

सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने मुसलमानों की जिंदगी के यथार्थ को खोल कर सामने रख दिया है। ऐसी ही विस्तृत रिपोर्ट विभिन्न जातियों की सापेक्षिक स्थिति के बारे में भी आनी चाहिए। मसलन यह तथ्य सामने आ सकता है कि ऊंची जातियों में सभी की स्थिति एक जैसी नहीं है। यह तथ्य तो सामने आएगा ही कि आरक्षण से कौन-सी जाति कितनी लाभान्वित हुई है। इसके आधार पर आरक्षण नीति पर पुनर्विचार की जरूरत पड़ सकती है। बेशक जातियों की जनगणना आसान नहीं है। बहुत-से लोग अपने को ऊंची जाति का बताएंगे। बहुत-से लोग अपने को आ॓बीसी बताएंगे ताकि आरक्षण का फायदा मिल सके। और भी तरह के घपले होंगे। मुस्लिम नेता दावा करेंगे कि इस्लाम में जातियों का कोई अस्तित्व नहीं है। लेकिन ये कठिनाइयां ऐसी नहीं हैं जिनसे पार न पाया जा सके। आवश्यकता राजनीतिक इच्छाशक्ति की है। कहने की जरूरत नहीं कि आजकल हमारे राजनीतिक वर्ग की इच्छाशक्ति कहां-कहां केंद्रित है।

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